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मरुभूमि वासियों की समृद्धि का कारक – शनि।

जैसा कि हर देशवासी अच्छी तरह परिचित है कि मरुभूमि के व्यवसायी भारत के हर भाग में पहुंचकर उन्होंने आर्थिक जगत में अभूतपूर्व प्रगति कर राष्ट्र के आर्थिक क्षेत्र में चहुंमुखी विकास में योगदान दिया है । इस क्षेत्र के छोटे-छोटे कस्बों एवं गांवों में इन्हीं व्यापार जगत की हस्तियों को हम भली भांति जानते हैं । उदाहरण के तौर पर पिलानी के बिड़ला बन्धु, सिंघानिया जेके समूह के स्वामी, रामगढ़ के पोद्दार, फतेहपुर के फतहपुरिया , चमडिया, नागौर के बांगड़ आदि ।

ये सभी व्यापार जगत की हस्तियाँ है । जिन्होंने न केवल भारत वर्ष में अपितु विश्व के अन्य देशों में उद्योग स्थापित कर अपने नाम , ग्राम तथा भारतवर्ष की गरिमा को आगे बढ़ाया है ।

यहाँ के निवासी ही प्रवासी बनकर क्यों गए तथा उन्होंने ही आर्थिक प्रगति में कीर्तिमान क्यों स्थापित किए । इन व्यक्तियों की प्राचीन हवेलियां ,उत्कृष्ट भवन देखकर हर व्यक्ति हतप्रभ हो जाता है । यह सब कैसे? ज्योतिष के आधार पर हम यदि दृष्टिपात करें तो इनका उत्तर सहज में ही हाथ लगेगा । ज्योतिष के आचार्यों ने कहा है कि शनि ही ऐसा ग्रह है जो विरोधाभास के कारकत्व का प्रतीक है ।

शनि यदि कुंडली में बलवान हो तो जातक को रंक से राजा बनाने की क्षमता रखता है और यदि बलहीन हो तो राजा से रंक बना देता है । शनि के अधिकृत स्थान मरुभूमि, कोयला, तेल, जंगल,खंडहर, निर्जन एकान्त आदि होते हैं । स्वयं मंदगति से चलता है यही कारण है कि इसका नाम शनि है परन्तु जातक को प्रवासी बना देता है । इसकी दशा महादशा में यात्रायें अधिक होती है ।

शनि दुख – सुख का कारक समृद्धि – दरिद्रता का कारक, नैतिकता – आध्यात्म का कारक, आयु- मृत्यु का कारक, निर्माण – विध्वंस का कारक, परतंत्रता- स्वतंत्रता का कारक, कुटिलता – परोपकार का कारक, पुरानी शासन व्यवस्था – नवीन शासन व्यवस्था के परिवर्तन का कारक आदि  आदि है । इन सब कारकत्व से यह परिणाम निकलता है की शनि अपने आप में विरोधाभास के लिए कारकत्व की दिशा निर्देश देता है ।

राजस्थान के मरुक्षेत्र में बहुतायत में शमीवृक्ष जिसको आम भाषा में खेजड़ी कहते हैं पाया जाता है । यह विशेषतौर पर सीकर, झुंझुनू, चूरू,( शेखावाटी) में है । और इसको राजस्थान प्रदेश का राजकीय वृक्ष होने का गौरव प्राप्त है । इसके कांटेदार वृक्ष की पत्तियों को भेड़ – बकरी, ऊंट आदि बड़े चाव से खाते हैं । वनस्पति शास्त्र में इसको Prospis- Cinerari- folia कहते हैं तथा यह वृक्ष Fabaceae कुल तथा Mimosdae उपकुल में आता है । इसमें प्रोटीन बहुत मात्रा में होती है तथा यहां के लोग पशुपालन कर अपनी आजीविका चलाते हैं ।

शमी वृक्ष शनि का प्रिय वृक्ष है । कांटेदार वृक्ष अधिकतर स्थानों निर्जन बना देते हैं तथा मरुभूमि में बदल देते हैं । दुख निवारण हेतु दशहरे के दिनों में तांत्रिक प्रयोग किया जाता है । जिसकी कुंडली में शनि बलहीन हो तो इसकी जड़ नीले रेशम के कपड़े में बांधकर रवि या गुरु पुष्य को धारण करने से कष्ट निवारण होते हैं ।

चूंकि शनि वैराग्य, निर्जनता आदि का कारक है अतः इस भूमि में शमी वृक्ष के वन तथा मरुस्थल बनाने में शनि की देन है । इन सब भौगोलिक परिस्थितियों के कारण यहां के लोगों को साधनहीनता से न कि देश बल्कि विश्व के अन्य देशों में प्रवासी बनाकर अपने रोजगार के साधन जुटाने पड़े । यह सब शमी जो की शनिदेव का प्रिय वृक्ष है, कि कृपा के फल का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । इसके परिणाम स्वरूप यहां के प्रवासी उच्च कोटि के लक्ष्मी पुत्र बनकर इन्होंने इस भूमि एवं देश विदेश मैं अपना गौरव बढ़ाया तथा इन्होंने स्वयं की  धार्मिक उन्नति कर देश के अन्य प्रदेशों में विद्यालय , महाविद्यालय, धर्मशालायें, औषधालय, चिकित्सालय, अभूतपूर्व मंदिर आदि का निर्माण करवाकर धार्मिक तथा सामाजिक जगत में अभूतपूर्व क्रांति का सूत्रपात किया तथा देश की आर्थिक प्रगति में योगदान किया ।

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